हमारा हिंदी साहित्य इन दोनों महान रचनाओं के बिना कभी संपूर्ण नहीं हो सकता। हमारा समस्त जीवन इन रचनाओं के आधार पर अत्यंत सरल रूप से जिया जा सकता है. मेरे अनुसार हमारी रोज़ की बहुत सारी गुथियाँ या भावों को यह एक सही दिशा प्रदान कर सकती हैं. एक से हमें कर्म का अर्थ मिलता है तो दुसरे से त्याग का महत्व उदय होता है. यह दोनों महाकाव्य जीवन के दो किनारे हैं. इन्ही दोनों के बीच में हमारे जीवन की नैया को बहना होता है. युद्ध, राज्य, स्त्री का मान - अपमान इत्यादि इन दोनों महान संरचनाओं का मूल है. फिर भी यह अपने महात्मय के कारणों में कितने भिन्न हैं.
महाभारत में हर पात्र अपनी महत्वकंषाओं में लुप्त था. अपनी आकांशा में उन्हें कभी कोई त्रुटी नहीं दिखाई दी. अपने स्थान पर हर पात्र सही था. यहाँ युद्ध अपने हक के लिए था. दुर्योधन अपने लिए सिंहासन चाहता था सिर्फ इस लिए की उससे यह विश्वास था की उसके पिता के साथ अन्याय हुआ था जब उनके अनुज पांडू को राजा बनाया गया था. यह उस काल का नियम था. अगर हम निष्पक्ष हो कर सोचे तो यह कोई गलत बात नहीं थी. जयेष्ट पुत्र होने के नाते उन्हें ही राजगद्दी मिलनी चाहिए थी. नेत्रहीन होने में उनका कोई दोष नहीं था. यह प्रकृति का खेल था. परन्तु राजधर्म इसकी अनुमति नहीं देता था और राज्य राजधर्म के अधीन आता है. दोनों भ्राता फिर भी अपनी महत्वकंषाओं के सामने किसी भी सम्बन्ध की आहूति देने में पीछे नहीं हटे.
दूसरी बात जब कृष्ण शांति सन्देश लेकर कुरु राजसभा में आये थे तब उन्होंने पांच ग्राम की मांग की थी. परन्तु दुर्योधन उसके लिए भी राज़ी नहीं हुआ. पांडव अगर निश्चित रूप से शांति से जीवन व्यतीत करना चाहते थे तो वनवास से कभी वापस नहीं आते. राज्य की लालसा उनके हृदय में भी थी. बुद्धि कहीं ना कहीं उनकी भी कुंठित थी. कृष्ण ने कर्म का पाठ दिया गीता में परन्तु दोषी वे भी थे. अपना विश्वस्वरूप दिखाया पर उदारता कहीं विलुप्त हो गयी उस विराट रूप में. वह इश्वर थे. सब जानते थे फिर भी कर्म होने दिया और विश्व के समक्ष कर्म प्रधानता का उदाहरण रखा. और साथ ही रखा "मैं" की प्रधानता. कुठुम्भ ओक्ष हो गया और कर्मठता अहम्. दिनकर की रचना "कुरुक्षेत्र" के प्रथम सर्ग की पहली दो पंक्तियाँ " वह कौन रो रहा है वहां, इतिहास के अध्याय पर, जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहू का मोल है....." इस पूरी महाभारत काव्य का सारांश है. कुरु सेना में भी सब अपने कर्मनिष्ठा में विलुप्त थे. फिर उनके कर्म को क्यों सूक्ष्म माना गया है? सही मायने में हम आज भी अगर कर्तव्यनिष्ठा का उदहारण ढूंढे, तो वे पात्र हमें कुरुसेना में ज्यादा मिलेंगे. भीष्म, द्रोणाचार्य, दानवीर कर्ण इत्यादि सब कुरु सेना के सेनानायक थे. पर फिर भी वे इस कर्मयुद्ध की आहुति चढ़ गए. गांधारी की धर्मनिरपेक्षता की शायद ही कोई माँ बराबरी कर सकती है पर पुत्र मोह ने उन्हें भी वशीभूत कर लिया.
कौन सही था, कौन गलत था इसका दायित्व किस पक्ष पर है, इस विषय पर विश्लेषण करना मेरी क्षमता के परे है. परन्तु एक सत्य निश्चित उजागर हुआ है, "बहस अथवा युद्ध में कुछ भी नहीं है, विश्वास में सब कुछ है". सत्य की विजय निश्चित हुई थी महाभारत में, परन्तु हाथ और जीवन सब के खाली थे। हृदय सब के दुःख से भरे हुए थे. इश्वर भी श्रापग्रसित हुए. जब मनुष्य बने, तब मनुष्य जैसी प्रवृति और भाग्य भी पाया। इस से ज्यादा बड़ी बात और क्या हो सकती है?
वही अगर हम रामायण की कथा की ओर देखते हैं तो ज्ञात होता है की कर्मनिष्ठ पात्र उसमें में भी थे परन्तु वहां त्याग प्रधान मूल था संबंधों का. स्त्री, राजसिंहासन और राज्य की समस्या इस रचना का भी सार है. हर पात्र अपने कर्म का पालन कर रहा पर अपनी महत्व्कंषाओं को कभी अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया. भाई इस महान संरचना में भी हैं, जो एक ही माता के पुत्र नहीं थे. फिर भी भावना प्रेम की थी ना की द्वेष की. लालसा एक दुसरे के दुख के भागी बनने की थी. सुख का त्याग सबसे महत्वपूर्ण था. इस लिए रामायण के हर पात्र के हृदय में स्नेह का वास था. न्याय - अन्याय की चाह नहीं थी.
इस रचना में हमें आदर्श शिष्टाचार का उदहारण मिलता है. रामायण, जीवन को संबंधों के दृष्टिकोण से देखना सिखाती हैं. हर सम्बन्ध की क्या उदारता होनी चाहिए, ये हमे ज्ञात होता है. माँ-पिता, सास-ससुर, जमाई -पुत्रवधू, पुत्र-पुत्री, पति-पत्नी, भाई-बहन इत्यादि का क्या दायित्व है एक दुसरे के प्रति, इन सब बातों का विश्लेषण बहुत ही सरल और सुन्दर प्रकार से किया गया है. जैसे सीता और उर्मिला बहनें थीं परन्तु वनवास में राजमहल में रह जाने के अकारण दंड का भागी उन्होंने सीता को कभी भी नहीं माना. रामायण ऐसे त्याग और प्रेम सम्बन्ध का सार है जहाँ एक दुसरे की सीमाओं से अवगत होना और सम्बन्ध को उसके परे ले जाना (ना की उसके अधीन होना) और हृदय को कुलषित करना कर्तव्य की नींव है.
इन दोनों महाकाव्यों का महत्व हमारे इस जीवन में आज भी है . एक में स्वधर्म है, दुसरे में त्याग. एक में द्वेष है तो दुसरे में प्रेम. महाभारत में मर्यादा के उलंघन होने पर भी विजय की लालसा युद्ध का मूल था तो, रामायण में मर्यादा (सीता हरन) का उलंघन होने के कारण युद्ध एक मात्र उपाय था. एक में सम्बन्धों की आहुति चढ़ी, दुसरे में सम्बन्धों की दृढ़ता निर्णायक थी. सीख दोनों में हैं. यह हम पर निर्भर करता है किस स्तिथि में हम किसका अनुसरण करना चाहते हैं.
मुझे हमेशा यही प्रतीत होता है किसी भी सम्बन्ध में अगर एक पक्ष भी निभाना चाहे तो वह सम्बन्ध निभ सकते हैं. खालीपन वहां है जहाँ अंतरद्वन्द पाने के लिए है, देने के लिए है नहीं . यह भी सत्य है की किसी रिश्ते को आप तभी तक संभाल सकते है जब तक सामनेवाला आपकी चेष्टा का आदर करने के लिए उत्सुक है. हर सम्बन्ध की एक मर्यादा और सीमा होती है, जिसका पालन हर दृष्टि से होना चाहिए. उलंघन किसी भी समस्या का समाधान नहीं होता है लेकिन शोषण किसी परिस्थि का उदेश्य भी नही होना चाहिए।
माँ
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