"रगों में दौड़ने फिरने के हम नही क़ायल , जो आंख से ना टपके वो लहू क्या है "
मिर्ज़ा ग़ालिब का ये शेर मुझे हमेशा यह सोचने पर मजबूर करता है की वाकई क्या हम अपने इंसान होने का हक़ अदा करते हैं? सिर्फ साँस लेना तो जिन्दा होने का सबब नही होता है। रोज़ सबेरे उठना और अपनी रोज़ मर्रा की जिंदगी को जीना, जीने का नाम तो नही हो सकता। अकसर मुझे अहसास होता है की ये इनायत जो हमें मिली है जिसे हम जिंदगी कहते हैं उसका मतलब इतना आसान तो नही होगा। अपने लिए तो एक जानवर और परिंदा भी जी लेता है, फिर उनमें और इन्सान में फ़र्क क्या है?
जब अपने चारो तरफ़ देखती हूँ तो ऐसा लगता है की बीना दूसरों का दर्द समझे जीना वैसा ही है जैसे किसी दुसरे के घर में हम अपना गुज़ारा कर रहे हैं। हर चीज़ दुसरे की है। अपने वजूद का कोई अहसास नही, ना ही अपने होने का कोई सबूत। लगता है जैसे जिधर जींदगी की हवा हमें ले जाएगी उधर ही हम चल पड़ेंगे। अपना कुछ भी नहीं है। ये सोच एक मुसाफ़िर होना तो सीखा देती है पर मंज़िल का पता नही देती। चलने का अहसास तो देती है पर किस रास्ते पर चलें उसका कोई इल्म नहीं होता। थोड़ी देर बैठ कर सोचने का भी हक़ नही। लगता है जैसे जीना ही जीने का मक़सद है। अपनी मर्ज़ी से जीना हो तो हम क्या करें? किस राह के राहगुज़र बने हम? ये सवाल इतना आसान नही है।
बड़े शहरों में ये और ज्यादा महसूस होता क्योंकि यहाँ सब अपनी ही लड़ाई में फसे हुए हैं।कैफ़ी आज़मी का शेर है "सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यों है, इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है " (फ़िल्म गरम हवा से)। पत्थर की तरह कोई जज़्बात नही है। अपना मतलब निकालने के लिए कोई दाम कम नही है, ना ही किसी दुसरे की कुर्बानी बड़ी। अपने आप को इन सब अहसासों के बीच महफूज़ रखना आसान नही है। क्या सही है, क्या ग़लत है, इसका फ़ैसला करना बहुत मुश्किल है। आज जो सही है वही कल ग़लत हो सकता है। हर चीज़ के मायने मुख्त्ल्फ़ हैं। लाखों लोग हैं पर किसे अपना समझे, किसे नहीं, ये तय करना मुश्किल हो जाता है। ये सारी चीज़े देख कर बहुत हैरानी होती है कभी कभी। फिर सोच कर अच्छा लगता है की इन सब बातों को समझने का जज़्बा अभी भी जिन्दा हैं मेरे अन्दर। शायद इस लिए जिंदा हूँ मैं।
क्या एक ही ख़ुदा ने ये सब कुछ बनाया है? अगर दिल दिया है तो उसे दुसरे का दर्द समझने की ताक़त क्यों नहीं दी? अगर हिम्मत दी है तो उसे दुसरे का बोझ उठाने का अहसास क्यों नही दिया? अगर कान दिए हैं तो दूसरों की आवाज़ सुनने की चाहत क्यों नही दिया? अगर हाथ दिए हैं तो दूसरों को गले लगाने का प्यार क्यों नहीं दिया? अगर तकदीर दी है तो दुसरे की तकदीर को सवारने की सोच क्यों नहीं दी? पांव दिए तो दुसरे को सहारा देने का जज़्बा क्यों नही दिया? अगर जान दिया है तो जीने का तरीका क्यों नही सिखाया? इन सब सवालों का मेरे पास आज कोई जवाब नही पर उम्मीद जरूर है की किसी दिन तुम्हारे भी आँखों से खून आंसूं बनकर निकलेंगे। उस दिन मुझे अपने जीने का मतलब और मक़सद दोनो मिल जायेंगे।
हमेशा लोगों के बीच रहने का ये मतलब नहीं की तुम अकेले नही हो। भीड़ में भी इंसान तन्हा हो सकता है। अपने साथ जीने की आदत होना भी बहुत मर्तबा जीने की वजह बन सकती है। अपना तारुफ़ अपने आप से ज़रूर कराओ। अपने लिए हमेशा वक़्त निकालना। कई बार हम दूसरों को समझने में इतने मशगुल हो जाते हैं की ख़ुद को क्या चाहिए, खुद का क्या वजूद है, ये समझने का वक़्त ही नहीं मिलता। ये एक ऐसा साथी जो हर क़दम पर हमकदम बन कर तुम्हारे साथ चलेगा। दूसरों से मुख़ातिब होने से पहले अपनी पहचान ख़ुद से कराना ज्यादा ज़रूरी है। हिम्मत अपने अन्दर ढूँढो, बाहर नहीं। दूसरों की हिम्मत बनो पर अपना दामन कभी नही छोड़ना। दिल का एक कोना हमेशा दूसरों के दर्द और धरकन को समझने के लिए ख़ाली रखना। इंसान का रिश्ता जब तक इंसानीयत के साथ बना रहता है तब तक तुम्हें जीने का अहसास होता है। जिंदगी बहुत ख़ूबसूरत है। इसको कभी ज़ाया नही होने देना। मुझे बताना ख़ुद से मिलकर कैसा लगा?
माँ
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