जोदि तोर डाक शुने केऊ न आसे
तबे एकला चलो रे। एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे!
जोदि केऊ कथा ना कोय, ओरे, ओरे, ओ अभागा,
जोदि सबाई थाके मुख फिराय, सबाई करे भय-
तबे परान खुले
ओ, तुई मुख फूटे तोर मनेर कथा एकला बोलो रे!
जोदि सबाई फिरे जाय, ओरे, ओरे, ओ अभागा,
जोदि गहन पथे जाबार काले केऊ फिरे न जाय-
तबे पथेर काँटा
ओ, तुई रक्तमाला चरन तले एकला दलो रे!
जोदि आलो ना घरे, ओरे, ओरे, ओ अभागा-
जोदि झड़ बादले आधार राते दुयार देय धरे-
तबे वज्रानले
आपुन बुकेर पांजर जालियेनिये एकला जलो रे!
जोदि केऊ कथा ना कोय, ओरे, ओरे, ओ अभागा,
जोदि सबाई थाके मुख फिराय, सबाई करे भय-
तबे परान खुले
ओ, तुई मुख फूटे तोर मनेर कथा एकला बोलो रे!
जोदि सबाई फिरे जाय, ओरे, ओरे, ओ अभागा,
जोदि गहन पथे जाबार काले केऊ फिरे न जाय-
तबे पथेर काँटा
ओ, तुई रक्तमाला चरन तले एकला दलो रे!
जोदि आलो ना घरे, ओरे, ओरे, ओ अभागा-
जोदि झड़ बादले आधार राते दुयार देय धरे-
तबे वज्रानले
आपुन बुकेर पांजर जालियेनिये एकला जलो रे!
- गुरुदेव रबिन्द्रनाथ टैगोर
यह एक ऐसी रचना है जिसका समय कभी भी खत्म नहीं होगा। जिस वक़्त यह लिखा गया उस समय भी इसका अभिप्राय उतना ही सशक्त था जितना की आज है। इसका मूल कारण है मनुष्य की प्रवृति। अकेले चलने की प्रेरणा आदि काल से मनुष्य दूसरों से ढूंढता है। विडंबना है सृष्टि की।
हर काल में यह देखा गया है की अगर कोई बदलाव आया है, चाहे वह मनुष्य के अपने जीवन में या संपूर्ण समाज में, उसकी शुरुआत एक अकेले इंसान या सोच से हुई है। पहला क़दम जिसके बल पर हम हज़ारों मील की दूरियाँ तय कर लेते हैं, वह भी अकेला ही होता है। जुड़वाँ बच्चे भी भले ही माँ की कोख़ में साथ पलते हैं परन्तु संसार में प्रवेश अकेले ही करते है। परमात्मा एक, आत्मा एक, सूरज एक, चाँद एक और जीवन भी एक ही है। अंत भी प्राणी का अकेले ही आता है। प्राण भी एक ही निकलता है। फ़िर अकेला कमज़ोर कैसे हो गया?
कोई भी कार्य अकेले शुरू करने में या अकेले किसी भी रास्ते पर चलने से हम इतना डरते क्यों हैं? नज़र हमेशा किसी न किसी साथी को ढूंढती है। साथ रहने पर सफ़र आसान ज़रूर हो जाता है पर राह नहीं बदलती है। चलने का दर्द ज़रूर कम हो सकता है पर दूरी नहीं घटती। फ़िर अकेला क्यों नहीं?
अगर अकेले चल भी दिए तो भी हर मोड़ पर हम अपने आप से सवाल ज़रूर करते है की आख़िर कर कोई साथ क्यों नहीं आया या अब भी किसी के आने की उम्मीद क्यों है? बहुत ही बेमानी सी है ये सोच पर सोच तो है।फ़िर अकेला चलना मन को खुश क्यों नहीं कर पाता?
ये सत्य है की किसी भी काम को शुरू करते वक़्त हमारा सबसे पहला साथी हम ख़ुद होते हैं। अगर इस 'अपने आप' को हम साथ नहीं लेकर चल सके तो कोई और आए या न आए, फ़र्क नहीं पड़ता। कहते हैं ना की जब अपना साया भी साथ छोड़ दे इंसान उस वक़्त सही मायने में अकेला हो जाता है। ज़िन्दगी की भीड़ में हर शख्स अकेला ही होता है। शास्त्र और साहित्य भी इस तथ्य पर एकरूप हैं।
आप इस अकेलेपन के डर से अगर बाहर निकल पाए तो अहसास होगा की हम कभी अकेले नहीं होते। मन और विचारों का साथ हमेशा है हमारे पास। फ़िर अकेले से क्या डरना? फ़िर अकेले को क्यों कमज़ोर समझना? फ़िर अकेले को क्यों शुष्क मानना?
हर काल में यह देखा गया है की अगर कोई बदलाव आया है, चाहे वह मनुष्य के अपने जीवन में या संपूर्ण समाज में, उसकी शुरुआत एक अकेले इंसान या सोच से हुई है। पहला क़दम जिसके बल पर हम हज़ारों मील की दूरियाँ तय कर लेते हैं, वह भी अकेला ही होता है। जुड़वाँ बच्चे भी भले ही माँ की कोख़ में साथ पलते हैं परन्तु संसार में प्रवेश अकेले ही करते है। परमात्मा एक, आत्मा एक, सूरज एक, चाँद एक और जीवन भी एक ही है। अंत भी प्राणी का अकेले ही आता है। प्राण भी एक ही निकलता है। फ़िर अकेला कमज़ोर कैसे हो गया?
कोई भी कार्य अकेले शुरू करने में या अकेले किसी भी रास्ते पर चलने से हम इतना डरते क्यों हैं? नज़र हमेशा किसी न किसी साथी को ढूंढती है। साथ रहने पर सफ़र आसान ज़रूर हो जाता है पर राह नहीं बदलती है। चलने का दर्द ज़रूर कम हो सकता है पर दूरी नहीं घटती। फ़िर अकेला क्यों नहीं?
अगर अकेले चल भी दिए तो भी हर मोड़ पर हम अपने आप से सवाल ज़रूर करते है की आख़िर कर कोई साथ क्यों नहीं आया या अब भी किसी के आने की उम्मीद क्यों है? बहुत ही बेमानी सी है ये सोच पर सोच तो है।फ़िर अकेला चलना मन को खुश क्यों नहीं कर पाता?
ये सत्य है की किसी भी काम को शुरू करते वक़्त हमारा सबसे पहला साथी हम ख़ुद होते हैं। अगर इस 'अपने आप' को हम साथ नहीं लेकर चल सके तो कोई और आए या न आए, फ़र्क नहीं पड़ता। कहते हैं ना की जब अपना साया भी साथ छोड़ दे इंसान उस वक़्त सही मायने में अकेला हो जाता है। ज़िन्दगी की भीड़ में हर शख्स अकेला ही होता है। शास्त्र और साहित्य भी इस तथ्य पर एकरूप हैं।
आप इस अकेलेपन के डर से अगर बाहर निकल पाए तो अहसास होगा की हम कभी अकेले नहीं होते। मन और विचारों का साथ हमेशा है हमारे पास। फ़िर अकेले से क्या डरना? फ़िर अकेले को क्यों कमज़ोर समझना? फ़िर अकेले को क्यों शुष्क मानना?
जोदि तोर डाक शुने केऊ न आसे , तबे एकला चलो रे।
एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे!
पहला कदम तो लो, काफ़िला ख़ुद- ब-ख़ुद बन जाएगा।
माँ
माँ
bahut badhiya
जवाब देंहटाएंthanks lipika...member toh bano..
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