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"मात पिता गुरु, प्रभु के बाणी,
बिन बिचार करिए सुभ जानी "
                            - रामायण

मेरे अनुसार इससे माननिये उल्लेख किसी भी रचना में ढूंढ़ पाना कठिन होगा। माता पिता का स्थान हमारे शाश्त्रों में भगवान से भी ऊपर रखा गया है। अगर देखा जाए तो हमारे सर्व प्रथम गुरु भी वे ही हैं। गणेश जी को जब अपनी प्रभुता दिखानी थी तब उन्होंने अपने मात पिता के चारों ओर प्रदक्षिणा करके अपने उच्च ज्ञान क्षमता का उदहारण  दिया था। 

यह आज मैं तुम्हारे साथ इस लिए बाँट रही हूँ क्योंकि इन बातों का उल्लेख तुम्हें मुझसे ही मिलना चाहिए। कोई भी संतान अगर पथभ्रमित होती है तो उसका श्रेय माँ को ज्यादा जाता है। पिता का बहुत महत्वपूर्ण योगदान होता है परन्तु दायित्व माँ का ज्यादा होता है। मनुष्य संसार को सर्व प्रथम देखना, माँ ही की आँखों से शुरू करता है। ऐसा मेरा मानना है। कहते हैं की पिता कुपिता हो सकता है परन्तु माता कभी भी कुमाता नही हो सकती। जिसको अपना रुधिर पिला कर पाला हो उसका अनिष्ट नही होने दे सकती। संतान स्त्री का अंश होता है। वो कितना भी कूपात्र क्यों न हो जाये, एक माँ उसकी तिलांजना या अवहेलना नही कर सकती। ये हर स्तिथि में अनिवार्य नहीं हो जाना चाहिए। संतान को सुमार्ग पर लाना भी माता पिता का कर्तव्य होता है।

किसी भी महान साहित्यकार या कवि की रचना को पढ़ोगी तो तुम्हे ज्ञात होगा की स्त्री का सबसे सुन्दर रूप भी माँ है और सबसे कठिन कार्य भी माँ का ही होता है। माँ के मानवीय  गुणों का विवरण करना सूरज को दीया दिखाने के बराबर है। आप कितने भी सफल हो जाए या पढ़ लिख जाए, माँ पिता से महान नही हो सकते। माँ के रूप में हर स्त्री अत्यंत सुंदर होती है। किसी भी बच्चे को अपनी माँ से अधिक प्रिय कोई मनुष्य नही हो सकता है। यह जीवन का वह सच है जिससे सब अवगत हैं। और जन्म देने वाली माँ से ज्यादा महत्व पालने वाली माँ का होता है। हम बहुत ही भाग्यशाली की हमारी जन्म देने वाली माँ ने हमें तजा नहीं। जब अपने चारों तरफ देखती हूँ तो प्रतीत होता है एक माँ पिता एक से ज्यादा बच्चों को पाल लेते हैं परन्तु सारे बच्चे मिलकर भी एक मात पिता का पालन पोषण नहीं कर पाते। ये हमारे समाज की विडंबना है। या यूं कहो सृष्टि का नियम है। किसी भी प्रकार की परस्थिति में एक स्त्री अपनी सवेक्षा से अपने आँचल की छाया को अपने बच्चों से दूर नहीं कर सकती है। ये आत्मसमर्पण माँ पिता के रूप में सबसे ज्यादा उजाग्रित होता है। ये ही एक सम्बन्ध है जिसमे कोई भी मिलावट नही होती। जीवन का ध्यय तुम्हारा सुख है। एक आत्मनिर्भर और कर्तवनिष्ट मनुष्य बनाना हमारा एक मात्र लक्ष्य।  

और हमेशा याद रखना की जो व्यक्ति माता पिता समान जयेष्ट मनुष्यों का आदर करता है, वह अपने माँ पिता का ऋण कुछ हद तक चुका पाने की चेष्टा कर सकता है। तुमसे बड़े लोग किसी भी जगह में आदर के योग्य होते है। अपने अधिकारों की कशमकश में कभी इतनी नही उलझना की अपने संस्कारों को भूल जाओ। सभ्य मनुष्य होना तुम्हारा परम कर्तव्य है। आदर हर मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है यह बात गांठ बांध कर रखना। यह ना तो अमीरों की जागीर है और नाही पढ़े लिखे वर्ग का अधिकार।  

आज जब तुम जब बड़ी हो रही हो तो मेरी बहुत सारी दिन प्रतिदिन की बातें / उपदेश तुम्हे नागवार गुजरते  होंगे पर एक दिन ऐसा आएगा जब इन बातों का अर्थ और महत्व तुम्हारी समझ में आएगा। अगर तुम एक अच्छी, जिम्मेदार और संस्कारी इंसान बनोगी तो मेरे लिए इससे ज्यादा संतोषजनक बात कुछ और नहीं होगी। 

माँ 
     




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