"रगों में दौड़ने फिरने के हम नही क़ायल , जो आंख से ना टपके वो लहू क्या है " मिर्ज़ा ग़ालिब का ये शेर मुझे हमेशा यह सोचने पर मजबूर करता है की वाकई क्या हम अपने इंसान होने का हक़ अदा करते हैं? सिर्फ साँस लेना तो जिन्दा होने का सबब नही होता है। रोज़ सबेरे उठना और अपनी रोज़ मर्रा की जिंदगी को जीना, जीने का नाम तो नही हो सकता। अकसर मुझे अहसास होता है की ये इनायत जो हमें मिली है जिसे हम जिंदगी कहते हैं उसका मतलब इतना आसान तो नही होगा। अपने लिए तो एक जानवर और परिंदा भी जी लेता है, फिर उनमें और इन्सान में फ़र्क क्या है? जब अपने चारो तरफ़ देखती हूँ तो ऐसा लगता है की बीना दूसरों का दर्द समझे जीना वैसा ही है जैसे किसी दुसरे के घर में हम अपना गुज़ारा कर रहे हैं। हर चीज़ दुसरे की है। अपने वजूद का कोई अहसास नही, ना ही अपने होने का कोई सबूत। लगता है जैसे जिधर जींदगी की हवा हमें ले जाएगी उधर ही हम चल पड़ेंगे। अपना कुछ भी नहीं है। ये सोच एक मुसाफ़िर होना तो सीखा देती है पर मंज़िल का पता नही देती। चलने का अहसास तो देती है पर किस रा...
Hindi works and my interpretations on their relevance.....