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"रगों में दौड़ने फिरने के हम नही क़ायल , जो आंख से ना टपके वो लहू क्या है " मिर्ज़ा ग़ालिब का ये शेर मुझे हमेशा यह सोचने पर मजबूर करता है की वाकई क्या हम अपने इंसान होने का हक़ अदा करते हैं? सिर्फ साँस लेना तो जिन्दा होने का सबब नही होता है। रोज़ सबेरे उठना और अपनी रोज़ मर्रा की जिंदगी को जीना, जीने का नाम तो नही हो सकता। अकसर मुझे अहसास होता है की ये इनायत जो हमें मिली है जिसे हम जिंदगी कहते हैं उसका मतलब इतना आसान तो नही होगा। अपने लिए तो एक जानवर और परिंदा भी जी लेता है, फिर उनमें और इन्सान में फ़र्क क्या है?  जब अपने चारो तरफ़ देखती हूँ तो ऐसा लगता है की बीना दूसरों का दर्द समझे जीना वैसा ही है जैसे किसी दुसरे के घर में हम अपना गुज़ारा कर रहे हैं। हर चीज़ दुसरे की है। अपने वजूद का कोई अहसास नही, ना ही अपने होने का कोई सबूत। लगता है जैसे जिधर जींदगी की हवा हमें ले जाएगी उधर ही हम चल पड़ेंगे। अपना कुछ भी नहीं है। ये सोच एक मुसाफ़िर होना तो सीखा देती है पर मंज़िल का पता नही देती। चलने का अहसास तो देती है पर किस रा...
"मात पिता गुरु, प्रभु के बाणी, बिन बिचार करिए सुभ जानी "                             - रामायण मेरे अनुसार इससे माननिये उल्लेख किसी भी रचना में ढूंढ़ पाना कठिन होगा। माता पिता का स्थान हमारे शाश्त्रों में भगवान से भी ऊपर रखा गया है। अगर देखा जाए तो हमारे सर्व प्रथम गुरु भी वे ही हैं। गणेश जी को जब अपनी प्रभुता दिखानी थी तब उन्होंने अपने मात पिता के चारों ओर प्रदक्षिणा करके अपने उच्च ज्ञान क्षमता का उदहारण  दिया था।  यह आज मैं तुम्हारे साथ इस लिए बाँट रही हूँ क्योंकि इन बातों का उल्लेख तुम्हें मुझसे ही मिलना चाहिए। कोई भी संतान अगर पथभ्रमित होती है तो उसका श्रेय माँ को ज्यादा जाता है। पिता का बहुत महत्वपूर्ण योगदान होता है परन्तु दायित्व माँ का ज्यादा होता है। मनुष्य संसार को सर्व प्रथम देखना, माँ ही की आँखों से शुरू करता है। ऐसा मेरा मानना है। कहते हैं की पिता कुपिता हो सकता है परन्तु माता कभी भी कुमाता नही हो सकती। जिसको अपना रुधिर पिला कर पाला हो उसका अनिष्ट नही होने दे सक...

रामायण और महाभारत

हमारा  हिंदी साहित्य इन दोनों महान रचनाओं के बिना कभी संपूर्ण नहीं हो सकता।  हमारा समस्त जीवन इन रचनाओं के आधार पर अत्यंत सरल रूप से जिया जा सकता है. मेरे अनुसार हमारी रोज़ की बहुत सारी गुथियाँ या भावों को यह एक सही दिशा प्रदान कर सकती हैं. एक से हमें कर्म का अर्थ मिलता है तो दुसरे से त्याग का महत्व उदय होता है. यह दोनों महाकाव्य जीवन के दो किनारे हैं. इन्ही दोनों के बीच में हमारे जीवन की नैया को बहना होता है . युद्ध, राज्य,  स्त्री का मान - अपमान इत्यादि  इन दोनों  महान संरचनाओं का मूल है . फिर भी यह अपने महात्मय के कारणों में कितने भिन्न हैं.                                  महाभारत में हर पात्र अपनी महत्वकंषाओं में लुप्त था. अपनी आकांशा में उन्हें कभी कोई त्रुटी नहीं दिखाई दी. अपने स्थान पर हर पात्र सही था. यहाँ युद्ध अपने हक के लिए था. दुर्योधन अपने लिए सिंहासन चाहता था सिर्फ इस लिए की उससे यह विश्वास था की उसके पिता के...
मेरी ये एक छोटी सी चेष्ठा है हिंदी के महान कवियों और लेखकों की रचनओं को श्रधांजली देने की और उसे अच्छी तरह समझने की। यह धरोहर मुझे मेरी माँ से मिली है जो मैं अपनी बेटी को देना चाहती हूँ। कुछ वर्ष पहले मैंने अपनी बेटी से पूछा की हमरे राष्टकवि कौन हैं ? उसके उत्तर ने मुझे झगझोर के रख दिया जब उसने कहा - रबिन्द्रनाथ टगोर. उस समय मुझे प्रतित हुआ की इस पीढ़ी को हमारे हिंदी साहित्य के बारे में  कितना सीमित ज्ञान है। तब से मैं सोच रही थी कुछ करने का ताकि इस पीढ़ी को भी हमारे हिंदी संस्कृति के कुछ अनमोल कृतियों से अवगत करा दू . हिंदी साहित्य मेरे अनुसार एक महान सागर है जिसकी चंद बूंदे भी अगर हम पर प़र  जाये तो जीवन की बहुत सारी गुथिया सुलझ सकती हैं . मेरे हिंदी साहित्य की ओर लगाव के लिए राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह दिनकर का बहुत महत्व है। उनकी रचनओं में मैं नित नए अर्थ देखती हूँ। हर शब्द में एक शक्ति सा प्रतीत होता है। पहली रचना मैंने अपने सप्तम वर्ग में पढ़ी थी। यह उनकी संरचना "कुरुषेत्र" से लियी गयी थी। " छमा शोभती उस भुजं...