मुंशी प्रेमचंद की मनोरमा और निर्मला, भगवतीचरण वर्मा की चित्रलेखा, आचार्य चतुर्सेन की वैशाली की नगर वधु, गोली , शरतचंद्र की देवदास और परिणीता, तुलसीदास की सीता और महर्षि व्यास की द्रौपदी, कुंती और गांधारी और ऐसी ही अन्य कई विख्यात रचनओं में स्त्री को ऐसे रूप में प्रस्तुत किया गया है जिसकी तुलना आम जीवन से नहीं की जा सकती। स्त्री के गुणों-अवगुणों को इस तरह से दर्शाया गया की अगर कोई सामान्य नारी उन पात्रों से अपनी तुलना करे तो उसे उसकी झलक अपने जीवन में कहीं नज़र नहीं आएगी। नारी के रूप को और भावनाओं के दो छोरों पर दिखाया गया है। ज्ञान, दया और त्याग अगर एक छोर है तो ईर्ष्या और प्रतिशोध दूसरा छोर है। क्या स्त्री इन दोनों के बीच में नहीं हो सकती ?
हमारी ज्यादातर हिंदी कृतियों में स्त्री को देवतुल्य चित्रित किया गया है और शायद इसी कारणवश एक आम स्त्री के लिए उसपर खड़ा उतरना आसान नहीं है। हमारे समाज में पुरुष मनुष्य है परन्तु स्त्री देवी है। ऐसी देवी जो समाज के हर ज़हर को पी सकती है, समाज की विकृतियों को अपने आँचल में छुपा सकती है, समान्य समाज में असामन्य सहनशक्ति का प्रदर्शन कर सकती है और समाज की सारी ग़लतियों को माफ़ करने की छमता रखती है। आखिरकार समाज मनुष्यों से बनता है, देवी-देवताओं से नहीं। समाज में स्त्री है कहाँ? ये ईश्वर की ऐसी रचना है जो समस्त सृष्टि से परे है। फ़िर हम किस अधिकार से स्त्री पर समाजिक नियम और क़ानून लागू करके उसका प्रतिकार करते हैं या उसे दोषी मानते हैं? स्त्री तो मनुष्य है ही नहीं।
कहते हैं की माँ के रूप में हर स्त्री असमान्य और अतुल्य है। ईश्वर शायद ग़लत हो जाएं परन्तु माँ कभी भी कुमाता नहीं हो सकती। जन्म से लेकर ब्याह के उपरांत भी बेटी अपने माता पिता की परिस्तिथि को समझती है और उनसे मूल रूप से हमेशा जुड़ी रहती है, आँगन के पेड़ की तरह। अर्धनारेश्वर के रूप में स्त्री को परुष की अर्धांगिनी माना गया है। सुख - दुःख, धुप - छाया, अच्छा - बुरा, रात - दिन सब में स्त्री पुरुष की शक्ति स्तंभ बन कर खड़ी रहती है। बड़ी बहन माँ के समान होती है और छोटी बहन बेटी की तरह। हर रूप में स्त्री में एक अस्वाभविक दैविक भाव और आत्मा के वास का आभास होता है। फ़िर हम किस अधिकार से स्त्री की परीक्षा धरती के साधारण नियमों के अनुसार करते हैं? स्त्री तो मनुष्य है ही नहीं।
अगर कोई औरत बुरी बनती है या अपनी महत्वकांछा के अंतर्गत वशीभूत होकर उसकी इक्षापूर्ती करने के लिए आंगन की ड्योढ़ी पार करती है तो समाज में इतनी प्रबल आवाज़ें क्यों उठती हैं? यह सच है की किसी भी घर की धूरी एक स्त्री होती है और परिवार को समेट कर रखना भी उसी के वश में होता। एक स्त्री ही कुल और कूटूम्भ के संस्कारों को संघठित कर उसे हर पीढ़ी को दे सकती है। हर स्तिथि को सवारने और जीवन को सुचारु और संतुलित ढंग से चलाने का सामर्थ्य रखने वाले को हम ईश्वर कहते हैं। फ़िर वो ही कर्म करने पर भी नारी का शोषण क्यों होता है? हमनें देवी बनाकर उसे सामान्य तो रहने ही नहीं दिया है। फिर समाज या समुदाय की सीमाओं का बंधन क्यों डालते हैं? स्त्री तो मनुष्य है ही नहीं।
किसी भी समाज में स्त्री का सम्मान और प्रभाव, उसकी सभ्यता को मापने के लिए पर्याप्त है। स्त्री भी मनुष्य है।
माँ
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