"कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीन तो कहीं आसमान नहीं मिलता....
......तेरे जहाँ में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहाँ उम्मीद हो इसकी, वहाँ नहीं मिलता"
- (निदा फ़ज़ली के ग़ज़ल की कुछ पंक्तियाँ )
कहीं ज़मीन तो कहीं आसमान नहीं मिलता....
......तेरे जहाँ में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहाँ उम्मीद हो इसकी, वहाँ नहीं मिलता"
- (निदा फ़ज़ली के ग़ज़ल की कुछ पंक्तियाँ )
किसी भी इंसान को जीने के लिए किन चीज़ों की ज़रुरत हो सकती है? साँस, ज़मीन और आसमां। पहला तो ख़ुदा पैदा करते के साथ दे देता है पर बाकी दो को हासिल करने में सारी उम्र निकल जाती है। कमर टूट जाती है पर दोनों साथ कभी नहीं मिलते। हर पल ज़िन्दगी ये अहसास दिलाती है की कितना मुश्किल है मिलना "अपनी ज़मीन और अपने आसमान" का। एक साथ।
जब तक माँ-बाप की ड्योढ़ी पार नहीं करते तब तक लगता है सब अपना है। उनका असमान हमारा होता है, उनकी ज़मीन हमारी होती है। फ़िर वो वक़्त आता है जब हम एक महफूज़ दायरे को पार करके अपनी दुनिया बनाने या यूँ कहो ढूँढने निकलते हैं। ना मंज़िल का होश रहता है और ना ही रास्ते का पता मगर दिल की उमंगों का हौसला बुलंद होता है। कुदरत ने ये ताक़त अपने हर बन्दे को दी है की हम अपने हाथ की लकीरों का रूख मोड़ सकते है और अपने तकदीर के फ़ैसले अपने हक़ में करा सकते हैं पर उसके पूरी होने की उम्मीद को एक अंधे कुए जैसा कर दिया है, जिसकी शुरुआत जो हमारी तरफ़ है और दिखाई भी देती है पर अंत नहीं। हम तमाम उम्र अपने-अपने अंधे कुए के साथ जीते हैं। थोड़ी सी ज़मीन और थोड़े से आसमान की चाह हर वक़्त बनी रहती है। सब कुछ है ख़ुदा के इस कायनात में पर जीना फ़िर भी नहीं होता है। उम्र के चढ़ाव और उतार में सारी ज़िन्दगी निकल जाती है।
जब तक अकेले हैं तब तक लगता है कोई साथ होता तो रास्ता आसान हो जाता और सफ़र में एक साथी भी मिल जाता। पर जब साथ मिलता है तो ज्यादातर रास्तों के मायने और मंज़िल तक पहुँचने की कशिश कहीं खो जाते हैं। बहुत कम ऐसा होता है की हमारा हमकदम, हमजुबां भी हो। अकसर हम एक छत के नीचे बिना किसी तक़रार के जीने को सफ़ल मानते हैं। पर दो लोगों का अगर ज़िन्दगी को देखने का नज़रिया मुख्तलिफ़ हो तो उसी क़ामयाब ख़ामोशी में सब कुछ खो जाता है। हर ख्वाइश धुंधली हो जाती है। साथ रहते हुए भी अकेलेपन का साथ नहीं छूटता। हर साँस लेने का जैसे क़र्ज़ उतारना पड़ता है।
ऐसा क्यों लगता है की जब हम ज़िन्दगी में छोटे-छोटे समझौते करने लगते हैं तब हमे जीवन तो ज़रूर मिल जाता है पर जीवन साथी नहीं? बड़े समझौते तो अकसर हमे एक दूसरे इंसान में तब्दील कर देते हैं। हम, हम नहीं रह जाते, किसी और के ख़याल की शक्ल इख्त्यार कर लेते हैं। किसी और का सच हम जीने लगते हैं। ढूँढने पर भी शायद ख़ुद को पहचान नहीं पाए। पत्थर की तरह बेजान और बिना रूह के बन जाते हैं। बस याद रह जाती है की हम भी कभी जिंदा हुआ करते थे और धीरे-धीरे वक़्त के धूल की परत उस अहसास को भी छुपा देती है। ख़ुद से ख़ुद का रिश्ता जैसे टूट जाता है, बदल जाता है। कोई अगर पीछे से आवाज़ भी दे तो लगता है शायद किसी और को ढूँढ रहा होगा। सच से बचकर गुज़रने का अहसास होता है। किसी को मेरी भी उम्मीद हो सकती है क्या? उदासी या बेकरारी हो सकती है? ऐसा होता क्यों है?
देखा जाए तो, किसी चीज़ की कमी नहीं लगती इस नए जहाँ में, पर इस तबदीली से जिस कोने के भरने की सबसे ज़्यादा उम्मीद होती है वो कोना अक्सर खाली रह जाता है। बदलने के बावज़ूद भी आपको आपकी ज़मीन या आसमान मिल जाए ये कतई ज़रूरी नहीं। फ़िर हम बदलते क्यों हैं? किस उम्मीद पर अपने आप को गुम कर देते हैं? सब कुछ लूटाने को भी अगर हम तैयार हों फ़िर भी ये यकीन नहीं दिलाया जा सकता है की आपको आपकी थोड़ी सी ज़मीन या आसमान नसीब होगा, अपनी छोटी सी दुनिया बनाने के लिए। हैरानी, नाराज़गी और परेशानी भी होती है मुझे इन सब बातों से।
ज़रा सोचिए...ये होता है तो आख़िर ये होता क्यों है????
कोई भी हो सकता है
देखा जाए तो, किसी चीज़ की कमी नहीं लगती इस नए जहाँ में, पर इस तबदीली से जिस कोने के भरने की सबसे ज़्यादा उम्मीद होती है वो कोना अक्सर खाली रह जाता है। बदलने के बावज़ूद भी आपको आपकी ज़मीन या आसमान मिल जाए ये कतई ज़रूरी नहीं। फ़िर हम बदलते क्यों हैं? किस उम्मीद पर अपने आप को गुम कर देते हैं? सब कुछ लूटाने को भी अगर हम तैयार हों फ़िर भी ये यकीन नहीं दिलाया जा सकता है की आपको आपकी थोड़ी सी ज़मीन या आसमान नसीब होगा, अपनी छोटी सी दुनिया बनाने के लिए। हैरानी, नाराज़गी और परेशानी भी होती है मुझे इन सब बातों से।
ज़रा सोचिए...ये होता है तो आख़िर ये होता क्यों है????
कोई भी हो सकता है
Kar raha tha gham-e-jahan ka hisab;
जवाब देंहटाएंAaj tum yaad be-hisab aaye.
-Faiz