जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आंगन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई।
जीवन में वह था एक कुसुम
थे उसपर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुरझाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुरझाई फिर कहाँ खिली
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुब न शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई।
- श्री हरिवंश राय 'बच्चन' की कविता "जो बीत गई सो बात गई" के दो छंद
बहुत दिनों बाद ये कविता मेरे हाथ लगी। स्कूल में पढ़ा था। आज फ़िर दोबारा इसका मिलना अच्छा लग रहा है। वह भी ऐसे समय में जब इसकी आवश्यकता है। साहित्य मुझे इस लिए प्रेरित करता है क्योंकि इसमें मानव जीवन के हर एक उतार-चढ़ाव, रंग, लय और भावना का प्रतिबिम्ब देखने को मिलता है। भावनायें शब्दों के अर्थ के परे होती हैं। भाषा उसे बांध नहीं सकती। साहित्य के अनेक रूप हैं। कहानियों या नाटक में तो फिर भी विभिन्न पात्र अलग-अलग संवेदना व्यक्त करते हैं या फिर उनसे जुड़े होते हैं इस लिए समझना या उनसे जुड़ जाना बहुत कठिन नहीं होता। परन्तु कविता तो उस समुद्र के समान है जिसका कोई ओर-छोर नहीं दिखता है। ऊपर से स्थिर लगता है पर अन्दर ना जाने कितने रहस्य, या संवेदनाओं को छिपाए रहता है। एक ही कविता को जितनी बार पढ़िए, नित्य नए अभिप्राय या सोच से परिचय होता है।
आज जब ये कविता पढ़ रही थी तो इसका संपूर्ण अर्थ समझ में आता है क्योंकि इतने वर्षों के जीवन में बहुत ऐसे छण आए जिस में इस कविता के तात्विक एवं मार्मिक अर्थ का आभास हुआ। जब से हम पैदा लेते हैं तभी से हम मृत्यु की ओर चलने लगते हैं। मृत्यु का मूल कारण ही जन्म है। हिन्दू धर्म के अनुसार हम 'ब्रह्मा-विष्णु-महेश' की आराधना करते हैं, इसी क्रम में। अगर हम इस तथ्य को आध्यात्मिक स्तर पर सोचे तो प्रतीत होगा की सांसारिक जीवन का अभिप्राय - जन्म (ब्रह्मा सृजन कर्ता हैं) ; जीवनयापन (विष्णु कर्म या क्रिया के कर्ता हैं) और मृत्यु ( शिव विनाश कर्ता हैं) - ही सर्वोच्च सत्य है सांसारिक जीवन का।
जो छूट गया उसे जाने दो। दुःख का मूल कारण है मोह। जो चीज़ खत्म हो गयी हो उसपर निरंतर शोक व्यक्त करना व्यर्थ है। प्रकृति जिससे मनुष्य को अपने जीवन के हर प्रश्न का उत्तर मिल सकता है भी वो भी यही सिखाती है। हर पल उससे अपना कोई न कोई छूटता है पर क्या वो उस पर शोक मनाती है। नहीं ना? हर काल में, हर ऋतु में नए जीवन की उत्पत्ति होती है। जो बीत गया उसे जाने दो।
सीता को वैदेही भी कहा जाता है - विदेह की पुत्री जो ठहरी। मैं हमेशा से जानना चाहती थी की उन्हें इस नाम से क्यों संबोधित किया जाता है। तो मैंने किताबें पढ़ना शुरू किया, अपनी माँ से पूछा फिर एक कहानी मैंने अमर चित्र कथा में पढ़ी। विदेह का अर्थ है बिना शरीर का - अर्थात शरीर होते हुए भी उससे परे होना। उनका शरीर हर सांसारिक कार्य में लुप्त रहता था परन्तु मन इनसे तनिक भी प्रभावित नहीं होता था। करो पर उस में ज्यादा फसों मत।
आज के जीवनशैली में शायद ये आसान नहीं पर इस तथ्य का मर्म बहुत कठिन भी नहीं होता। हमारे सामान्य जीवन में भी अनुभव किया है मैंने की जिसको आप बहुत प्यार या सम्मान देते है, जरूरी नहीं की वो भी आपका मान करे। प्रेम स्वतः होता है, बल पर नहीं, ना ही श्रद्धा या सेवा से। जिससे आपको स्नेह होना हो वो आपके लिए कुछ भी ना करे फिर भी आपके प्यार में कमी नहीं आएगी। उसी प्रकार जिससे आप अपना मन नहीं मिलाना चाहते वो चाहे कुछ भी करे आप उसे अपने हृदय में स्थान नहीं देंगे। बहुत कटु है पर सत्य है। बहुत अनुभव के बाद मैंने सिखा की तुम उससे भावनात्मक सम्बन्ध बनाओ जो तुम से रखना चाहता है, और जो नहीं रखना चाहता है उसे जाने दो। सर्वस्व उसे दो जो उसके महत्व को समझे। हर रिश्ते की एक सीमा होती और ये सीमा हम तय करते है। कोई आपके पास नहीं रहना चाहे तो उसपर दबाव नहीं दीजिए। आप किसी को विवश नहीं कर सकते। टूटे पते पेड़ पर वापस नहीं लगते। अम्बर के आंगन को देखो, कितने इसके तारे टूटे, कितने इसके प्यारे छूटे, जो छूट गए फिर कहाँ मिले, पर बोलो टूटे तारों पर, कब अम्बर शोक मनाता है?
माँ होने के नाते कितनी बार मैंने प्रयत्न किया पर हर बार सफलता नहीं मिलती अपने बच्चों के साथ। उस समय छोड़ देना बेहतर होता है क्योंकि हर शिशु अपने कर्म का भागी होता है। आप मार्ग दर्शन कर सकते हैं, अपने मान्यताओं का प्रतिरूप हो सकते हैं पर उसके बदले आप उसका कर्म नहीं कर सकते। जीवन में वह था एक कुसुम, थे उसपर नित्य निछावर तुम , वह सूख गया तो सूख गया। इसका ये मतलब नहीं की हमें प्रयास करना छोड़ देना चाहिए अपितु फल हमारे हाथ में नहीं होता इस बात को समझना चाहिए। और आप अकेले नहीं है। कर्मणये वाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन । मां कर्मफलहेतुर्भू: मांते संङगोस्त्वकर्मणि ।। Your right is to work only, But never to its fruits; Let not the fruits of action be thy motive, Nor let thy attachment be to inaction….
हिंदी में भूत और भविष्य दोनों को कल कहा गया है। सोचिए तो लगेगा की ये दोनों वो यथार्थ हैं जीवन के जिस पर हमारा कोई बस नहीं होता शायद इस लिए एक शब्द से संबोधित किया जाता है। फ़िर अपने आज को इनपर व्यतित करना कहाँ की बुद्धिमता है? जो गया उस पर ज़ोर नहीं, जो आने वाला है उसके विषय में पता नहीं फिर किस चीज़ के पीछे हम भाग रहे हैं? दो सत्य जिस पर समस्त प्रकृति का अस्तित्व निर्भर करता है - जन्म और मृत्यु। न जन्म पर हमारा प्रभुत्व है न मरन पर वश फ़िर चिंता कैसी और क्यों? कर्म ही सत्य है।
जो बीत गयी सो बात गयी, माना वो बेहद प्यारा था ……
माँ
सीता को वैदेही भी कहा जाता है - विदेह की पुत्री जो ठहरी। मैं हमेशा से जानना चाहती थी की उन्हें इस नाम से क्यों संबोधित किया जाता है। तो मैंने किताबें पढ़ना शुरू किया, अपनी माँ से पूछा फिर एक कहानी मैंने अमर चित्र कथा में पढ़ी। विदेह का अर्थ है बिना शरीर का - अर्थात शरीर होते हुए भी उससे परे होना। उनका शरीर हर सांसारिक कार्य में लुप्त रहता था परन्तु मन इनसे तनिक भी प्रभावित नहीं होता था। करो पर उस में ज्यादा फसों मत।
आज के जीवनशैली में शायद ये आसान नहीं पर इस तथ्य का मर्म बहुत कठिन भी नहीं होता। हमारे सामान्य जीवन में भी अनुभव किया है मैंने की जिसको आप बहुत प्यार या सम्मान देते है, जरूरी नहीं की वो भी आपका मान करे। प्रेम स्वतः होता है, बल पर नहीं, ना ही श्रद्धा या सेवा से। जिससे आपको स्नेह होना हो वो आपके लिए कुछ भी ना करे फिर भी आपके प्यार में कमी नहीं आएगी। उसी प्रकार जिससे आप अपना मन नहीं मिलाना चाहते वो चाहे कुछ भी करे आप उसे अपने हृदय में स्थान नहीं देंगे। बहुत कटु है पर सत्य है। बहुत अनुभव के बाद मैंने सिखा की तुम उससे भावनात्मक सम्बन्ध बनाओ जो तुम से रखना चाहता है, और जो नहीं रखना चाहता है उसे जाने दो। सर्वस्व उसे दो जो उसके महत्व को समझे। हर रिश्ते की एक सीमा होती और ये सीमा हम तय करते है। कोई आपके पास नहीं रहना चाहे तो उसपर दबाव नहीं दीजिए। आप किसी को विवश नहीं कर सकते। टूटे पते पेड़ पर वापस नहीं लगते। अम्बर के आंगन को देखो, कितने इसके तारे टूटे, कितने इसके प्यारे छूटे, जो छूट गए फिर कहाँ मिले, पर बोलो टूटे तारों पर, कब अम्बर शोक मनाता है?
माँ होने के नाते कितनी बार मैंने प्रयत्न किया पर हर बार सफलता नहीं मिलती अपने बच्चों के साथ। उस समय छोड़ देना बेहतर होता है क्योंकि हर शिशु अपने कर्म का भागी होता है। आप मार्ग दर्शन कर सकते हैं, अपने मान्यताओं का प्रतिरूप हो सकते हैं पर उसके बदले आप उसका कर्म नहीं कर सकते। जीवन में वह था एक कुसुम, थे उसपर नित्य निछावर तुम , वह सूख गया तो सूख गया। इसका ये मतलब नहीं की हमें प्रयास करना छोड़ देना चाहिए अपितु फल हमारे हाथ में नहीं होता इस बात को समझना चाहिए। और आप अकेले नहीं है। कर्मणये वाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन । मां कर्मफलहेतुर्भू: मांते संङगोस्त्वकर्मणि ।। Your right is to work only, But never to its fruits; Let not the fruits of action be thy motive, Nor let thy attachment be to inaction….
हिंदी में भूत और भविष्य दोनों को कल कहा गया है। सोचिए तो लगेगा की ये दोनों वो यथार्थ हैं जीवन के जिस पर हमारा कोई बस नहीं होता शायद इस लिए एक शब्द से संबोधित किया जाता है। फ़िर अपने आज को इनपर व्यतित करना कहाँ की बुद्धिमता है? जो गया उस पर ज़ोर नहीं, जो आने वाला है उसके विषय में पता नहीं फिर किस चीज़ के पीछे हम भाग रहे हैं? दो सत्य जिस पर समस्त प्रकृति का अस्तित्व निर्भर करता है - जन्म और मृत्यु। न जन्म पर हमारा प्रभुत्व है न मरन पर वश फ़िर चिंता कैसी और क्यों? कर्म ही सत्य है।
जो बीत गयी सो बात गयी, माना वो बेहद प्यारा था ……
माँ
Aapke dwara post ki gayi Kavita bahut hi sunder hai aur life ko kisi ki kami ke karan khatm kar ko taiyar yuvako ko naye sire se jine ko pratit karti hai. Thanks.
जवाब देंहटाएं🙏🏻🙏🏻
हटाएंबहुत सुंदर भाव
हटाएं👌👌👌👌👌👌👍👍👍👍
जवाब देंहटाएं🙏🏻🙏🏻
हटाएंजबरदस्त बहुत ही बढ़िया लेख लिखा है आपने 👌👌
जवाब देंहटाएं🙏🏻🙏🏻
हटाएंYe poem ka matlab batakar aapne ek dubte ko tinka ka Sahara diya hai. Thanks🙏.
जवाब देंहटाएं🙏🏻🙏🏻
जवाब देंहटाएं,,👌👌👌👌
जवाब देंहटाएंPure kbita ki meaning pta nhi
जवाब देंहटाएं,👌👌👌
जवाब देंहटाएंवाह ...क्या मार्मिक लेख लिखा है आपने। वास्तविकता को परिभाषित करता आपका लेख। लाजबाब 👌
जवाब देंहटाएंdhanywad
जवाब देंहटाएंMam iska or bhag kaha hai 🙄🙄
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