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रुक जाना नहीं तू कहीं हार के.....

जब किसी ने पहली बार किसी से कुछ कहा होगा तब शायद बोल के सही ताक़त का अंदाज़ा भी नहीं होगा उसे। की एक समय ऐसा भी आएगा जब ये एक पूरी नस्ल या मुल्क़ को दीवाना कर देंगे या उसके रूह को हमेशा के लिए ख़ामोश। जहाँ इसके अच्छाई से वे अनजान रहे होंगे, वहीँ इसके तूफ़ानी फ़ितरत के बारे में उन्हें इल्म भी नहीं होगा। हर सिक्के के सिर्फ दो पहलू होते हैं - चित या पट; हर मंज़िल पर पहुँचने के सिर्फ दो रास्ते होते हैं - सही या ग़लत; हर जीवन का सिर्फ दो ही ज़रिया होता है - जीना या मरना। कभी - कभी सोचती हूँ तो लगता है अगर हमारे जीवन में कमियाँ नहीं होती तो शायद हम अपने खुशियों की कभी कद्र नहीं करते। पर आज मैं अल्फ़ाज़ की ताक़त पर ही ध्यान देना चाहती हूँ।

मैं अक्सर सोचती हूँ की अगर भाषा शब्दों के रूप में नहीं होती तो क्या हमारा वज़ूद नहीं होता या हमारा समाज तब भी विकसित नहीं होता? या यूँ सोचिए की हम अपनी बात या ज़ज़्बात दूसरों तक नहीं पहुंचा पाते? आँखों को मन का आइना कहा जाता है पर मन की तो कोई एक ज़बान नहीं होती।  फ़िर ये बोलती कैसे है? इसके पास दिमाग़ नहीं फिर सोचती कैसे है? गन्दा खून भी इस में दौड़ता है, फ़िर जिंदा कैसे रहती है? क्या दूसरों के कहे शब्दों का ज़हन पर ऐसा असर होता है की शरीर का सबसे ख़ास अंग होने के बावजूद ज़मीर का ख़ुद का एक मुख्तलिफ़ वजूद है? शायद इसी लिए क़ुदरत ने इसे ज़िस्म के बीचों बीच रखा है ताकि यह हमेशा सोच और अहसास का संतुलन बनाकर रख सके। दिमाग सबसे ऊपर इस लिए होगा ताकि दिल के कामों में दख़लअंदाजी न कर सके या फ़िर उसकी ना चलने दे। दुनिया का दस्तूर है, ऊंचाई ने हमेशा अपने से नीचे वालों को पनपने नहीं दिया है। कोई नई बात नहीं। 

हर के जीवन में ऐसे बहुत से मुक़ाम होंगे जिसमें मन की आवाज़ों को दफ़नाने के बाद हासिल की हुई कामयाबी पर भी हम खुश होते हैं। पर क्या मन की आवाज़ को दफना देने से हमारे अन्दर के तूफ़ान शांत हो जाते हैं? ज़हन में आया हुआ सैलाब हमें परेशान नहीं करता? पर मेरा मानना है की कभी न कभी ये कशमकश लफ़्ज़ों की शक्ल इख्तियार कर के किसी ना किसी बहाने हमारे सामने आकर खड़े हो ही जाते हैं। होना भी चाहिए।  जीना इसी का नाम हैं। 

कहते हैं की जब तक आपकी रूह जिन्दा है तब तक आप है। जिस दिन इसने आँख बंद कर ली उस दिन हम साँस तो लेते हैं पर जिंदा नहीं होते। मन के हारे हार, मन के जीते जीत। मेरे हिसाब से ऐसे ही वक़्त पर शब्द के असल मायने और मौजूदगी का अहसास होता है। ये ही वो ज़रिया है जो हमारे ज़हन में जब मौत जैसी ख़ामोशी छा जाती है, उससे निकाल सकती है। लफ्ज़ ही होते हैं जो किसी को जिंदा रहने का मकसद दे सकते हैं। पर जब हम इसका इस्तेमाल बेमाने तरीक़े से करते हैं, तब इनका कोई मोल नहीं होता।  

कहते हैं की दूसरों की तस्वीर बनाना बहुत ही आसान होता है पर खुद को आईने के सामने रखना बहुत ही मुश्किल होता है। तस्वीर की सचाई को हम अपने हिसाब से पेश कर सकते हैं पर आईना बड़ी आसानी से सचाई बयां कर जाता है। क्या बोलने से पहले हम एक बार रुक कर सोचते हैं की जो मैंने कहा उसे हम खुद पर लागू कर सकते हैं की नहीं? ये जो बोल होते हैं वो अगर इतिहास बना सकते हैं, गंगा के बहते हुए पानी में आग लगा सकते हैं तो ये हद से गुज़र जाने का जोश भी रखते है। और हम कितनी आसानी से इसका इस्तेमाल जब-जहाँ-जैसे मन हो कर लेते हैं। इंसान की फ़ितरत ही शायद ऐसी है। 

कभी कभी लगता है शायद ये शब्द नहीं होते तो जीना ज्यादा आसान होता। आत्मा के दरवाज़े पर खटखटाने का बूता अगर किसी में है तो वो आवाज़ में ही है। फिर ये आवाज़ चाहे कहीं से भी आ रही हो - बाहर या ज़मीर की। 

ऐसे रिश्ते में जहाँ सच की आवाज़ को सुन कर अपने मन की आवाज़ से मिलाना मुमकिन न हो, इसे रिश्ता कहते हैं क्या? कहते हैं की सच बोलना आसान नहीं होता, पर मेरे हिसाब से सच को सुनना उससे कहीं ज़्यादा मुश्किल होता है। ऐसे पलों में जब दिल ढूँढता है वही फुरसत के रात दिन तब अहसास होता है की सिर्फ दोस्तों का साथ होना काफी नहीं होता।  हम ज़ुबान होना भी उतना ही ज़रूरी होता है। रिश्तों की गर्माहट को वही समझ सकता है जिसे आपकी भाषा समझ आती हो। जहाँ हमें बहुत नाप-तोल कर बोलने की ज़रूरत हो, वो दोस्ती का आयाम नहीं हो सकता। दोस्ती इन सब दायरों से बहुत आगे और बड़ी होती है।इस लिए सच्चे दोस्त का मिलना भी बहुत किस्मत की बात होती है। ये रिश्ते बनते हैं, सौगात में नहीं मिलते।     

जब भी लगता है मैं कमज़ोर पड़  रही हूँ तब इस गाने के बोल मुझे एक नई उम्मीद की रौशनी दिखाते है। शब्द हैं तभी तो हम है। हमारा अस्तित्व है।  हम ही हम हैं तो क्या हम हैं, तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो।   

                    
रुक जाना नहीं तू कहीं हार के
काँटों पे चल के मिलेंगे साये बहार के
ओ राही, ओ राही

सूरज देख रुक गया है
तेरे आगे झुक गया है
जब कभी ऐसे कोई मस्ताना
निकले है अपनी धुन में दीवाना
शाम सुहानी बन जाते हैं दिन इंतज़ार के

साथी न कारवां है
ये तेरा इम्तिहां है
यूँ ही चला चल दिल के सहारे
करती है मंज़िल तुझको इशारे
देख कहीं कोई रोक नहीं ले तुझको पुकार के

नैन आँसू जो लिये हैं
ये राहों के दीये हैं
लोगों को उनका सब कुछ दे के
तू तो चला था सपने ही ले के
कोई नहीं तो तेरे अपने हैं सपने ये प्यार के

 - मजरूह सुल्तानपुरी  (इम्तिहाँ - १९७४ )
   






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