प्राय: जब सोचने बैठती हूँ तो जीवन का अभिप्राय इतने वर्षों के बाद भी कुछ कम ही समझ आता है। हर नया दिन अपने साथ नित् नए सपने बुनने की क्षमता और पुराने घावों को मिटाने की हिम्मत लेकर आता है। अब ये हमारे ऊपर निर्भर करता है की हम इसका उपयोग किस प्रकार करें।
आज की युवा पीढ़ी को देखती हूँ तो लगता है की ये लोग जीवन के यथार्थ से कितने परे हैं। यह बड़े शहरों में अत्यधिक है पर छोटे शहरों में भी धीरे धीरे अपनी जड़ें बना रहा है। कहते हैं की किसी भी समाज का साहित्य, कला, चलचित्र इत्यादि उस समाज का प्रतिबिम्ब होते हैं। आज हमारे भारतीय समाज को अगर देखें तो ज्ञात होगा की यह कथन कितना सटीक है। प्रगतिशील होने का यह तात्पर्य तो नहीं हो सकता की हम अपने मूल मान्यताओं या संस्कारों की तिलांजलि दें।
हर माता-पिता इसी कोशिश में रहतें हैं की कैसे अपने बच्चे को जीवन के कटु सत्यों से दूर रखें। इस सोच में कोई त्रुटी नहीं है परन्तु हम एक बहुत आवश्यक तथ्य को भूल जातें हैं की एक उम्र के बाद उन्हें जीवन की वास्तविकता से दूर रख कर हम उन्ही का अनहित कर रहे हैं। कल को जब घर के संरक्षित वातावरण से बहार अपनी पहचान बनाने निकलेंगे तब कोई माँ का आँचल या पिता का व्रजहस्त साथ नहीं होगा। जीवन के थपेड़े और समय की मार जिस वक़्त हमारे बच्चों को तोड़ने का हर प्रयास करेंगे उस समय उसे इन सब को सहने या उनसे बाहर निकलने की शक्ति या मनोबल कहाँ से आएगा? माता-पिता के रूप में हम अमर नहीं है।
भविष्य किसी ने नहीं देखा है। धन सब कुछ नहीं खरीद सकता। विद्या हर समस्या का समाधान नहीं हो सकती। आंख मूँद लेने से परेशानियाँ लुप्त नहीं हो जाती हैं। यह आवश्यक नहीं की हमारा परिवार हमेशा हमारे साथ रहे। फ़िर वह क्या है जो हमारा है या जो हम अपने बच्चों को दे सकते हैं?
मनुष्य का मनोबल और यह अटल विश्वास की हर दिन एक समान नहीं होता। हर घने बादल में उम्मीद की एक किरण ज़रूर होती है। किसी भी अंधकार को दीये की एक छोटी सी लौ भी दूर कर सकती है। परिस्तिथि के आगे घूटने टेकना पहला नहीं बल्कि अंतिम उपाय होना चाहिए। जीवन के हर पथ का आरंभ एक छोटे से कदम से होता है। ढूँढने पर तो ईश्वर भी मिल जाते हैं।
कवी नीरज की यह रचना मुझे हमेशा अनुभूति देती है हर कार्य का एक निर्धारित समय होता है। अभिभावक के रूप में यह हमारा कर्तव्य है की हम सिर्फ मार्ग दर्शन करें और जहाँ उचित हो वहां सहयोग दें। समय का महत्व हर मनुष्य को होना चाहिए। प्रकृति भी निर्धारित रूप से चलती है।
माँ
स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क़ बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,
वक्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,
ग़ाज एक वह गिरी,
पुंछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी,
और हम अजान से,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे!
- नीरज
इन विचारों से असहमत होना या इनको नकारना, सिवाय पूर्वाग्रह जनित मज़बूरी के, और कुछ नहीं हो सकता।
जवाब देंहटाएंसमय-काल के अनुसार परिवर्तन सदैव सकारात्मक होना चाहिए और अतीत में ऐसा ही होता था। मेरे विचार से विदेशी आक्रांताओं, विशेषकर इस्लामिक-मुग़ल और क्रिस्चियन-अंग्रेज़, ने भले ही शाषण पद्धति या व्यवस्था में कुछ तात्कालिक सुधार किये हों, कुल मिलाकर उन्होंने हमारे, उनसे कई गुणा उत्तम संस्कृति, ज्ञान और सामाजिक व्यवस्थाओं को चौपट ही करने का काम किया।
अभी की पीढ़ी इसका साक्षात प्रमाण है: "वो न इधर के रहे ना उधर के रहे"!
बहुत अच्छे से आप ने अवलोकन किया है आज के मौलिक विचार और शिक्षा निती का।
जवाब देंहटाएं💐🙌💐
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