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"धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सीचे सौ घड़ा, रितु आये फल होय।"

"बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय।
जो दिल ढूँढा आपना, मुझसे बुरा ना कोय।"

"जो बड़ेंन  को लघु कहे, नहीं रहीम घट जाए।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुःख मानत नाय।"

"कमला थिर न रहीम  कही, यह जानत सब कोय।
पुरुष पुरातन की वधु, क्यों ना चंचला होय।"

" रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से भी ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय।"

"साईं इतना दीजिये जा में कुटुम्भ समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु ना भूखा जाय।"

"पूत कपूत तो क्यों धन संचय।
पूत सपूत तो क्यों धन संचय।"

"आवत ही हर्षे नहीं नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहाँ ना जाइए कंचन बरसे मेह।"


"जब काल मनुज पर छाता है।
पहले विवेक मर जाता है।"    

"पत्थर पूजे तो हरी मिले, तो मैं पूजूं पहर,
उससे तो चक्की भली जो पिस खाए संसार।" 


"“तीन चीजें अधिक समय तक नहीं छुपी रह सकती: सूरज, चंद्रमा और सत्य। ”

"कंकर पत्थर जोड़ के मस्जिद दियो बनाये,
ता पर चढ़ मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाए।"

यह सारे दोहे, कहावत, पंक्तियाँ हमारी संस्कृति और साहित्य सागर की कुछ बूँदें हैं जो हमारी ही धरोहर है। ऐसे असंख्य अनमोल रत्न आपको मिल जायेंगे यदि आप प्रयास करें या फिर ढूंढ कर पढ़ने की चेष्टा करें। ये ऐसी चीज़ें हैं जिनका कोई वक़्त नहीं होता। हर युग में, हर परिस्थिति में इनका मोल बना रहेगा। हर पीढ़ी का फ़र्ज़ है की वह अपनी अगली पीढ़ी से इनका परिचय कराये। 

जीवन की जटिल गूथियों को इतनी सरलता से भाव व्यक्त करने की छमता इन सारी पंक्तियों में देखने को मिलती है। आज के सामाजिक पतन का कारण यह भी है की, हम इन सारी सरल बातों को भूल कर न जाने किस भव्य सत्य से अपना परिचय कराना चाहते है। जो आँखों के सामने है उसे छोड़ कर किसी असाधारण तत्व की खोज में लगे हुए हैं। कभी-कभी हँसी आती है सोच कर की हमने पश्चिम सभ्यता का जिन विषयों से  परिचय  कराया, उन्ही की खोज में हम पश्चिम की ओर जाने के लिए उत्तेजित हो रहे हैं। सब है अपने यहाँ। खोजो तो सही।

आज अगर आप किसी पालतू-पशु प्रेमी से उसके पालतू जानवर के वंश के बारे में पूछेंगे तो चार-पांच पुश्त तक तो अवश्य उन्हें ज्ञात होगा। परन्तु अपनी जो संस्कृति है उसके विषय में जानकारी रखना आवश्यक नहीं समझते। ज़रा तुलसी, रहीम या कबीर से सम्बंधित बात करने की कोशिश कीजिए, सब किसी और ग्रह के निवासी के समान लगेंगे उन्हें। कौन पढ़ता इन सबको आज कल? पुरानी चीज़ें हैं ना।

पुरानी तो बुरी यादें भी होती हैं, पुरानी तो दुश्मनी भी होती है, पुराने तो बुरे ख्याल भी होते हैं पर क्या उन्हें हम भूलते हैं? नहीं। उनको हम खुद अपने सीने से लगा कर रखते हैं। फिर इन अच्छी बातों का क्यों तिरस्कार करते हैं? 

मैं किसी पीढ़ी को कतई दोषी नहीं मानती क्योंकि हर पीढ़ी वही सीखती है जो उन्हें सिखाया जाता है। बच्चे कच्ची मिट्टी के भाती होते है। हम जिस प्रकार उन्हें ढालते हैं, वे वैसे हीं ढलते हैं। ज्यादातर बच्चे माता-पिता की कमज़ोरी के कारण हीं पथ भ्रष्ट होते हैं। कुछ ऐसे माता-पिता भी होते हैं जिनके बच्चे उनके अथक प्रयास और संस्कारों के बावजूद अंधी गलियों में खो जाते हैं। जहाँ माता-पिता सुचरित्र या सत्यमार्गी हैं, वहां हमारा समाज, युवा पीढ़ी के व्यक्तित्व को ध्वस्त करने का कार्य कर देता है।

समय के साथ चलने में समझदारी है पर ये किस पुस्तक में लिखा है की आगे बढ़ने के लिए हमे पिछले को रोंद देना चाहिए? अपनी सहूलियत के हिसाब से सही और ग़लत की व्याख्या बदलने से पहले सोचना हमारा फ़र्ज़ बनता है।

बदलना है तो मोर्चा निकालो उस मानसिकता के विरुद्ध जो मनुष्यता या अच्छाई के ख़िलाफ़ है, या किसी समुदाय और लिंग को कुचलने के लिए प्रोत्साहन देता है। दायरे में सब अच्छा लगता है, वो फिर प्रकृति हो या पुरुष हो या स्त्री। सयम हर चीज़ में अनिवार्य होता है।

आज हमारा समाज भी इतना भौतिक हो चुका है की माँ-बाप का संतान के कर्मों या उपलब्धियों के लिए व्याख्या ही बदल गयी है। सब कुछ छणिक हो गया है। हर काम में जल्दी।  किसके पास वक़्त है रुक कर, सोच कर काम करने का? एक शरीर को मनुष्य बनने में समय लगता है। माता-पिता की सही सिचाई के बाद ही एक व्यक्ति सामाजिक रूप से तैयार होता अपने ख़ुद की पहचान बनाने के लिए। अगर एक भी क़दम पर जल्दीबाज़ी की जाए तो अंतिम उत्पाद यानि हमारी संतान ख़राब निकल सकता है। एक गंदी मछली पुरे तालाब को गंदा करने के लिए काफ़ी होती है। एक कमज़ोर कड़ी समाज को ध्वस्त करने के लिए काफ़ी होती है। माँ-बाप का एक ग़लत क़दम, संतान के जीवन के पतन के लिए काफ़ी होता है।

मैं हमेशा मानती हूँ की जो स्त्री पढ़ी लिखी है उसे अपने लिए काम करना चाहिए। घर के बाहर जाने से मानसिकता में परिवर्तन आता है। आप अपने परिवार को चार अच्छी और प्रगतिशील चीज़ें सिखा सकती हैं। महिलाओं को अपनी अर्जित ज्ञान का सदुपयोग करना चाहिए। ज्ञान कभी अश्लील होना नहीं सिखाता। प्रगति का तात्पर्य नगापन नहीं है। सम्मान कपड़ो से नहीं, ज्ञान से मिलता है। 

बहुत ऐसे  लोग हैं जो जड़ और सांस्कृतिक संपत्ति के बारे में जानना या उसके विषय में बात करना धकियानूसी मानसिकता समझते हैं। ख़ासकर वो जिन्हें अपने जड़ से जुड़े रहना गवारपन लगता है।  पेड़ वही मज़बूत होता है जिसकी डालियों पर फल-फूल होते हैं और जड़ पुरी तरह अपनी मीटी में गड़ा रहता है। हवा और पानी कहीं का भी हो, मिट्टी तो अपनी ही होनी चाहिए।

 माँ 


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