"वृक्ष हों भले खड़े , हों बड़े, हों घने ,
एक पत्र छाह की ,
मांग मत, मांग मत, मांग मत,
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ।
तू न थकेगा कभी, तू न थमेगा कभी, तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ।
ये महान दृश्य है, चल रहा मनुष्य है, अश्रु, स्वेद, रक्त से,
लथपथ, लथपथ, लथपथ,
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ।"
- श्री हरिवंश राय बच्चन
एक पत्र छाह की ,
मांग मत, मांग मत, मांग मत,
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ।
तू न थकेगा कभी, तू न थमेगा कभी, तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ।
ये महान दृश्य है, चल रहा मनुष्य है, अश्रु, स्वेद, रक्त से,
लथपथ, लथपथ, लथपथ,
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ।"
- श्री हरिवंश राय बच्चन
इस कविता से मेरा परिचय कई वर्षों पहले हुआ था और तबसे इसके शब्दों की गूँज हमेशा से मेरे साथ रही है। ये मुझे कभी किसी कवि की रचना नहीं लगी। हमेशा से लगा जैसे अंतरआत्मा का आदेश है की इसकी अवहेलना किसी भी मन:स्तिथि एवं परिस्तिथि में नहीं होनी चाहिए। जब भी इससे पढ़ती हूँ तो लगता है जैसे मन ये सारी बातें मुझसे कह रहा है। बहुत सरलता से समझा रहा है की ये जीवनयापन का सबसे सशक्त मार्ग है। मन से अधिक बलवान कुछ नहीं है। हमारे समस्त ज्ञान, आध्यात्म और मृगतृष्णा का श्रोत भी मन है और लक्ष्य भी मन है। इसी से सारी कृतियाँ और विकृतियाँ जन्म लेती हैं और फिर इसी में सब विलीन भी होती हैं। जीवन का लय इसी से प्रारंभ होता है फिर अंत समय में इसी का साथ छुटने पर हमारी जीवन लीला का समापन होता है। इसका ओर छोर पाना एक जीवनकाल के अधीन नहीं हो सकता। शायद इस लिए बुद्ध ने हमें इस अंतर्द्वंद से निकलने के लिए निर्वान का मध्य मार्ग दिखाया है। ये कविता मेरे अनुसार हमें इसी की प्रेरणा देती है।
जीवन का अर्थ और कर्म, दोनों का मूल और लक्ष्य, इस रचना में अत्यंत हीं सुन्दर रूप में प्रस्तुत किया गया है। जीवन ने कभी भी नहीं कहा है हमें की, मैं स्थिर हूँ या सरल हूँ। हम निरंतर हर कार्य में उसके करने का अर्थ या अंत की खोज करते रहते हैं। और इन सब के बीच हमारी जिंदगी के अमूल्य छण कब हमारे उँगलियों के बीच से फिसल जाते हैं, ये हमें ज्ञात नहीं होता। महाभारत में कृष्ण ने कर्म का महत्व बताया और अपना विकराल स्वरुप दिखा कर अपने होने की अनुभूति भी दी। मेरी समझ से विधि और कर्म एक ही लक्ष्य के दो रूप हैं। पहले पर विजय पाकर हीं हम दुसरे का अनुसरण कर सकते हैं। एक के बिना दूसरा निरर्थक है।
इस कविता में जिस पथ की बात कही गयी है वह मेरे अनुसार सत्य से भी आगे है। ये सिर्फ किसी कठोर पथ पर चलने की बात नहीं पर उससे कहीं ज्यादा बलिष्ट भावना का अनुसरण करने की प्रेरणा है। मैंने हमेशा से माना है की जिस सत्य को मानने या करने में आपको, आपके कुटुम्भ और समाज को लाभ हो वह सत्य निम्न कोटि का नहीं हो सकता। वह जीवन जीने के सबसे उत्तम मार्ग का प्रतीक होगा। ये भी उतना ही सत्य है की सत्य की राह पर चलने वाले ज्यादातर अकेले हीं चलते हैं। सच बोलना शायद फिर भी सरल हो पर सब में सच को सहने की शक्ति नहीं होती। कई बार लोग मुझसे स्वयं के बारे में कहते हैं की "मैं बहुत स्पष्टवादी हूँ" तो मेरे अन्दर एक ही प्रश्न उठता है - सुनने में या सुनाने में। यथार्थ को सुनाना एक बात है पर उसको सहना या मान लेना आसान नहीं। और वह भी ऐसा सच जो आपके नीवों को झंझोरने की छमता रखता हो। ये मेरी स्वयं की अनुभूति है। बहुत सारी बातों को मैं बोल जाती हूँ पर उनको अपने लिए कार्यरत करना कठिन होता है। ऐसे ही छणों में यह रचना मुझे प्रेरित करती है।
प्रकृति का सृजन मनुष्य की मन की शक्ति और इंद्रियों को उजागर करने के लिए हुआ है। विचित्र विडंबना है की जहाँ इश्वर ने प्रकृति की रचना मनुष्य के जीवन को सफल बनाने के लिए की होगी, वहीं हम एक दुसरे का अविरोध करते है। ये सृष्टि एक महान दृश्य है जो हमारे समक्ष निरंतर उजाग्रित होता है, चलता है। हमारा कर्तव्य है इसके अर्थ को समझना जो की बिना अश्रु, पसीने, रुधिर के स्वचालन के असंभव है। जीवन के अग्निपथ पर चल कर आगे वही व्यक्ति जा सकता है जिसके मन में ये प्रण हो - मैं कभी थककर बैठ नहीं सकता, मैं ना कभी रूक सकता हूँ, मैं कभी नहीं मुड़कर उसको देखने की चेष्टा करूँगाजो पीछे छुट गया है, मेरे आँखों में दूसरों के दर्द पर बहने वाले अश्रु होंगे, कर्म करके पसीना बहाने का आत्मविश्वास है और लहू सिर्फ अपने लिए ही नहीं बल्कि दूसरों के लिए बहाने की इक्छा होगी।
"कर शपथ,कर शपथ,कर शपथ। अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ।"
माँ
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें