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एक पल

सुक़ून के एक पल की हर किसी को तलाश है। पर न जाने ये क्यों मिलता नहीं। हर किसी को शांति की खोज है। अंदर बाहर कहीं तो इस से मुलाक़ात हो जाऐ। बैठ कर सुख-दुःख की दो चार बातें कर लें उसके साथ। बस वो एक पल एक बार हाथ लग जाए, फिर कहीं जाने नहीं दूँगी। इस चैन की खोज में अपने दिन रात के चैन को खो दिया है कहीं मैंने। हँसी भी आती है अपने इस सोच पर। फ़िर ध्यान आता है शायद इसी को जीवन कहते हैं।जब हम बोलते हैं पर न कोई सुनने वाला हो या समझने वाला हो तो ऐसा वक़्त भी आता है जब इंसान चुप हो जाता है। दिल बोलना तो बहुत चाहता हैं पर फिर भी जुबां चुप रहती है की कहीं कोई तूफ़ान नहीं उठ जाये। कुछ कहने की चाह नहीं रह जाती।अक्सर जिस उम्मीद या चीज़ के पीछे दौड़ के थक जाने पर बैठ जाती हूँ, नज़र उठा कर देखती हूँ तो वही चीज़ ख़ुद -ब-ख़ुद आराम से चल कर मेरी तरफ आती दिखाई देती है। उसकी चाल में कोई बेचैनी या जल्दी पहुँचने की परेशानी नहीं दिखाई देती। फिर मैं क्यों परेशान हो जाती हूँ इसके लिए? किसी ने सच ही कहा है की अपने जीवन को सफ़ल समझने के लिए म...
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एक अकेला इस शहर में, रात में और दोपहर में...

"एक अकेला इस शहर में, रात  में और दोपहर में.… आबोदाना ढूंढता है, आशियाना ढूंढता है।" इस गाने को जब पहली बार सुना तब इसका मतलब समझ नहीं आया था। बहुत छोटी थी तब और आज भी मेरे लिए पुरे गाने के बोल का वह मतलब नहीं, जो शायद शायर का हो। ये ख़ूबसूरती होती है हर गीत की। जो भी सुनता है, उसे अपने मन मुताबिक़ समझता है, महसूस करता है। हर माहौल और उससे जुड़े सवालों को हम अपने तरीके से सोचते हैं। अपने खुद के आईने में देखते हैं। कैसे भूल सकती हूँ साहिर लुधयानवी की लिखी ग़ज़ल (कभी खुद पे कभी हालत पे रोना आया.…) की एक लाइन   "कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त, सबको अपने ही किसी बात पे रोना आया..... "   खूबसूरत भी, ज़हीन भी।  " एक अकेला इस शहर में, रात  में और दोपहर में.…" मेरे लिए भी ऐसा ही है।      पहले ऐसी सब बातों पर मेरा ध्यान न जाता था पर शायद उम्र और तज़ुर्बे का तक़ाज़ा है की इस तरह के कई सवाल अनायास मेरे ज़हन में आते है। जब तक इनको टटोल न लूं,  कुछ वक़्त ...

जो बीत गई सो बात गई...

जीवन में एक सितारा था माना वह बेहद प्यारा था वह डूब गया तो डूब गया अम्बर के आंगन को देखो कितने इसके तारे टूटे कितने इसके प्यारे छूटे जो छूट गए फिर कहाँ मिले पर बोलो टूटे तारों पर कब अम्बर शोक मनाता है जो बीत गई सो बात गई।  जीवन में वह था एक कुसुम थे उसपर नित्य निछावर तुम वह सूख गया तो सूख गया मधुवन की छाती को देखो सूखी कितनी इसकी कलियाँ मुरझाई कितनी वल्लरियाँ जो मुरझाई फिर कहाँ खिली पर बोलो सूखे फूलों पर कब मधुब न शोर मचाता है जो बीत गई सो बात गई।  - श्री हरिवंश राय 'बच्चन' की कविता "जो बीत गई सो बात गई"  के दो छंद   बहुत दिनों बाद ये कविता मेरे हाथ लगी। स्कूल में पढ़ा था।  आज फ़िर दोबारा इसका मिलना अच्छा लग रहा है। वह भी ऐसे समय में जब इसकी आवश्यकता है। साहित्य मुझे इस लिए प्रेरित करता है क्योंकि इसमें मानव जीवन के हर एक उतार-चढ़ाव, रंग, लय और भावना का प्रतिबिम्ब देखने को मिलता है। भावनायें शब्दों के अर्थ के परे होती हैं। भाषा उसे बांध नहीं सकती। साहित्य के अनेक रूप हैं। कहानियों या नाटक...

रुक जाना नहीं तू कहीं हार के.....

जब किसी ने पहली बार किसी से कुछ कहा होगा तब शायद बोल के सही ताक़त का अंदाज़ा भी  नहीं होगा उसे। की एक समय ऐसा भी आएगा जब ये एक पूरी नस्ल या मुल्क़ को दीवाना कर देंगे या उसके रूह को हमेशा के लिए ख़ामोश।  जहाँ इसके अच्छाई से वे अनजान रहे होंगे, वहीँ इसके तूफ़ानी फ़ितरत के बारे में उन्हें इल्म भी नहीं होगा। हर सिक्के के सिर्फ दो पहलू होते हैं - चित या पट; हर मंज़िल पर पहुँचने के सिर्फ दो रास्ते होते हैं - सही या ग़लत; हर जीवन का सिर्फ दो ही ज़रिया होता है - जीना या मरना। कभी - कभी सोचती हूँ तो लगता है अगर हमारे जीवन में कमियाँ नहीं होती तो शायद हम अपने खुशियों की कभी कद्र नहीं करते।   पर आज मैं अल्फ़ाज़ की ताक़त पर ही  ध्यान देना चाहती हूँ। मैं अक्सर सोचती हूँ की अगर भाषा शब्दों के रूप में नहीं होती तो क्या हमारा वज़ूद नहीं होता या हमारा  समाज तब भी विकसित नहीं होता? या यूँ सोचिए की हम अपनी बात या ज़ज़्बात दूसरों तक नहीं पहुंचा...

नई उम्र की नई फ़सल

प्राय: जब सोचने बैठती हूँ तो जीवन का अभिप्राय इतने वर्षों के बाद भी कुछ कम ही समझ आता है। हर नया दिन अपने साथ नित् नए सपने बुनने की क्षमता और पुराने घावों को मिटाने की हिम्मत लेकर आता है। अब ये हमारे ऊपर निर्भर करता है की हम इसका उपयोग किस प्रकार करें।   आज की युवा पीढ़ी को देखती हूँ तो लगता है की ये लोग जीवन के यथार्थ से कितने परे हैं। यह बड़े शहरों में अत्यधिक है पर छोटे शहरों में भी धीरे धीरे अपनी जड़ें बना रहा है। कहते हैं की किसी भी समाज का साहित्य, कला, चलचित्र इत्यादि उस समाज का प्रतिबिम्ब होते हैं। आज हमारे भारतीय समाज को अगर देखें तो ज्ञात होगा की यह कथन कितना सटीक है। प्रगतिशील होने का यह तात्पर्य तो नहीं हो सकता की हम अपने मूल मान्यताओं या संस्कारों की तिलांजलि दें।  हर माता-पिता इसी कोशिश में रहतें हैं की कैसे अपने बच्चे को जीवन के कटु सत्यों से दूर रखें। इस सोच में कोई त्रुटी नहीं है परन्तु हम एक बहुत आवश्यक तथ्य को भूल जातें हैं की एक उम्र के बाद उन्हें जीवन की वास्तविकता से दूर रख कर हम उन्ही का अनहित कर रहे...