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रुक जाना नहीं तू कहीं हार के.....

जब किसी ने पहली बार किसी से कुछ कहा होगा तब शायद बोल के सही ताक़त का अंदाज़ा भी  नहीं होगा उसे। की एक समय ऐसा भी आएगा जब ये एक पूरी नस्ल या मुल्क़ को दीवाना कर देंगे या उसके रूह को हमेशा के लिए ख़ामोश।  जहाँ इसके अच्छाई से वे अनजान रहे होंगे, वहीँ इसके तूफ़ानी फ़ितरत के बारे में उन्हें इल्म भी नहीं होगा। हर सिक्के के सिर्फ दो पहलू होते हैं - चित या पट; हर मंज़िल पर पहुँचने के सिर्फ दो रास्ते होते हैं - सही या ग़लत; हर जीवन का सिर्फ दो ही ज़रिया होता है - जीना या मरना। कभी - कभी सोचती हूँ तो लगता है अगर हमारे जीवन में कमियाँ नहीं होती तो शायद हम अपने खुशियों की कभी कद्र नहीं करते।   पर आज मैं अल्फ़ाज़ की ताक़त पर ही  ध्यान देना चाहती हूँ। मैं अक्सर सोचती हूँ की अगर भाषा शब्दों के रूप में नहीं होती तो क्या हमारा वज़ूद नहीं होता या हमारा  समाज तब भी विकसित नहीं होता? या यूँ सोचिए की हम अपनी बात या ज़ज़्बात दूसरों तक नहीं पहुंचा...