प्राय: जब सोचने बैठती हूँ तो जीवन का अभिप्राय इतने वर्षों के बाद भी कुछ कम ही समझ आता है। हर नया दिन अपने साथ नित् नए सपने बुनने की क्षमता और पुराने घावों को मिटाने की हिम्मत लेकर आता है। अब ये हमारे ऊपर निर्भर करता है की हम इसका उपयोग किस प्रकार करें। आज की युवा पीढ़ी को देखती हूँ तो लगता है की ये लोग जीवन के यथार्थ से कितने परे हैं। यह बड़े शहरों में अत्यधिक है पर छोटे शहरों में भी धीरे धीरे अपनी जड़ें बना रहा है। कहते हैं की किसी भी समाज का साहित्य, कला, चलचित्र इत्यादि उस समाज का प्रतिबिम्ब होते हैं। आज हमारे भारतीय समाज को अगर देखें तो ज्ञात होगा की यह कथन कितना सटीक है। प्रगतिशील होने का यह तात्पर्य तो नहीं हो सकता की हम अपने मूल मान्यताओं या संस्कारों की तिलांजलि दें। हर माता-पिता इसी कोशिश में रहतें हैं की कैसे अपने बच्चे को जीवन के कटु सत्यों से दूर रखें। इस सोच में कोई त्रुटी नहीं है परन्तु हम एक बहुत आवश्यक तथ्य को भूल जातें हैं की एक उम्र के बाद उन्हें जीवन की वास्तविकता से दूर रख कर हम उन्ही का अनहित कर रहे...
Hindi works and my interpretations on their relevance.....