सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

एक अकेला इस शहर में, रात में और दोपहर में...

"एक अकेला इस शहर में, रात  में और दोपहर में.… आबोदाना ढूंढता है, आशियाना ढूंढता है।" इस गाने को जब पहली बार सुना तब इसका मतलब समझ नहीं आया था। बहुत छोटी थी तब और आज भी मेरे लिए पुरे गाने के बोल का वह मतलब नहीं, जो शायद शायर का हो। ये ख़ूबसूरती होती है हर गीत की। जो भी सुनता है, उसे अपने मन मुताबिक़ समझता है, महसूस करता है। हर माहौल और उससे जुड़े सवालों को हम अपने तरीके से सोचते हैं। अपने खुद के आईने में देखते हैं। कैसे भूल सकती हूँ साहिर लुधयानवी की लिखी ग़ज़ल (कभी खुद पे कभी हालत पे रोना आया.…) की एक लाइन   "कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त, सबको अपने ही किसी बात पे रोना आया..... "   खूबसूरत भी, ज़हीन भी।  " एक अकेला इस शहर में, रात  में और दोपहर में.…" मेरे लिए भी ऐसा ही है।      पहले ऐसी सब बातों पर मेरा ध्यान न जाता था पर शायद उम्र और तज़ुर्बे का तक़ाज़ा है की इस तरह के कई सवाल अनायास मेरे ज़हन में आते है। जब तक इनको टटोल न लूं,  कुछ वक़्त ...